स्वयं पर विजय
दुसरो से तो सभी लड़ लेते है। विरोधी, विपछी या शत्रु से लड़कर हम उन्हें परास्त भी कर सकते है। इसमें कोई खास बहादुरी नहीं है। अगर किसी को योद्धा कहलाने का इतना ही शौक है तो पहले भीतर बैठे शत्रु से लड़कर तो देखे की क्या लोभ, अहंकार , दुर्गुण , बुराई जैसे असुरो से लडने में कामयाब हो सकता है ?
वस्तुतः व्यक्ति समझ नहीं पता जीवन सार्थक कैसे बनेगा ? यह साडी सृष्टि परमात्मा के द्वारा रचित है। इस सृष्टि में वही जीतता है, जो स्वयं के अंदर के दुर्गुणों को परास्त कर परमात्मा के सत्य गुण – धर्म को अपने अंदर स्थापित कर लेता है। स्वयं के अंदर की बुराइयाँ , कमजोरियां मनुष्य को पग – पग पर परास्त करती है और व्यक्ति हर पल हारता चला जाता है। इन बुराइयों को दूर किये बिना जीवन की ज्योति न कभी प्रज्ज्वलित होती है और न ही अंतर्मन का अँधेरा दूर होता है। सदा भटकाव , अशांति, आभाव, समस्या बनी रहती है। व्यक्ति के अंदर के काम, क्रोध,लोभ, मोह जैसे पिशाच जबतक मरते नहीं , तबतक जीवन में देवत्व की कल्पना अधूरी रहती है। इन्हे दूर करके ही अंतर्मन को दिव्य प्रकाश से आलोकित करना संभव हो पता है।
दुनिया में जितने भी महापुरुष हुए है , वे पग पग पर स्वयं के अंदर की कमजोरियों को दूर करते रहे है। प्रायः देखा जाता है कि व्यक्ति दुसरो को बराबर कोसता नजर आता है आता है कि तुम्हारे अंदर अमुक दुर्गुण है , पर उससे पहले अपने अंदर के दुर्गुणों को ढूढ़ने की कोशिश नहीं करता है। हम बदलेंगे तभी युग बदलेगा। परिवर्तन की शुरुआत वास्तव में स्वयं से ही होती है।