पवित्रम् आयुर्वेद (Ayurveda), हमारे ऋषि मुनियों की हजारों वर्षो की मेहनत एंव अनुभव का नतीजा है, जो रोगों की चिकित्सा के साथ–साथ जीवन मूल्यों, स्वास्थ्य एंव जीवन जीने का सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करता है| आयुर्वेद वैज्ञानिक होने के साथ-साथ प्रकृति के नियमों पर आधारित है जिनमें प्राथमिक सिद्धांत हैं। पंचमहाभूत (जल, वायु, अग्नि, आकाश तथा पृथ्वी) और त्रिदोष (वात, पित्त, तथा कफ)। आयुर्वेद ने आहार, निद्रा तथा ब्रह्मचर्य के महत्व को व्रणित करते हुए इसे त्रिदंड कहा है कि जिस पर हमारा स्वास्थ्य टिका है। जीवन शैली के महत्व को दर्शाते हुए दिनचर्या तथा ऋतुचर्या का विस्तार से वर्णन किया गया है। इनका सम्यक् रूप से पालन करने वाले लोगों की रोगों से रक्षा हो जाती है तथा स्वस्थ जीवन यापन करते हैं।
”स्वास्थ्य” स्वास्थ्य रक्षणम् आतुरस्य रोगप्रशमनम् च।“
(स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा रोगी मनुष्य के रोग को दूर करना)
स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करने तथा बाहरी कारणों से रोगों की उत्पत्ति होती है तथा उनका निवारण औषधियों तथा शोधन क्रियाओं अर्थात् पंचकर्म से किया जाता है। इसके बाद स्वस्थ रहने के लिए रसायन औषधियों का भी प्रयोग किया जाता है जिससे हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति बनी रहे।
शारीरिक दोष वात, पित्त, कफ तथा मानसिक दोष रज और तम। इनमें संतुलन रहे, तो कोई बीमारी आप तक नहीं आ सकती। जब इनका संतुलन बिगड़ता है, तो ही कोई बीमारी शरीर पर हावी होती है तथा रोग की चिकित्सा दो प्रकार की है—शोधन (पंचकर्म द्वारा) तथा संशमन (औषधियों द्वारा)। पंचकर्म का आयुर्वेद में विशिष्ट स्थान है। इसमें पांच क्रियाओं का वर्णन है, जिससे विकृत दोषों को शारीरिक शुद्धिकरण करके निकाल दिया जाता है और रोगोत्पत्ति के फलस्वरूप एकत्रित विषाक्त पदार्थों को भी शरीर से निकालकर संपूर्ण शुद्धिकरण किया जाता है।
आयुर्वेद में चिकित्सा करते हुए केवल रोग के लक्षणों को ही नहीं देखा जाता बल्कि इसके साथ साथ रोगी के मन, शारीरिक प्रकृति एंव अन्य दोषों की प्रकृति को भी ध्यान में रखा जाता है| यही कारण है कि एक ही रोग होने पर भी अलग अलग रोगियों की चिकित्सा एंव औषधियों में भिन्नता पाई जाती है|
लखनऊ में स्थित, पवित्रम् भारत – योग साधना एवं आयुर्वेद उपचार केंद्र है, जहाँ पर योग एवं आयुर्वेदिक तरीके से जीवन जीना सिखाया जाता है। यहाँ पर लोग शांतिप्रिय एवं स्वथ्य जीवन जीने का तरीका सीख सकते हैं।
वमन कर्मः प्रकुपित कफ दोष का मुख्यद्वार से उल्टी के रूप में निष्कासन।
विरेचन कर्मः प्रकुपित पित्त दोष को गुदामार्ग से मल के साथ निष्कासन करना।
बस्ति कर्मः गुदामार्ग अथवा मूत्रमार्ग द्वारा औषधियों को विशेष यंत्र द्वारा प्रविष्ट करवाना। यह प्रकुपित वात दोष का शोधन करती है। यह दो प्रकार की होती हैः
नस्य कर्मः औषधियुक्त स्नेह अथवा चूर्ण को नासा मार्ग से देने को नस्य कहा जाता है। नासा को सिर का द्वार माना गया है तथा इस मार्ग से दी गई औषधि सिर तथा संपूर्ण शरीर से दोषों का निष्कासन करती है। यह पंचकर्म का एक कर्म है जो कि सिर, गला, आंख, नाक तथा कान की व्याधियों में विशेषतया लाभ पहुंचाती है।
नस्य कर्म शिरः शूल, माइग्रेन, अकाल बालों का सफेद होना, बाल गिरना, पक्षाघात, सर्दी-खांसी, पुराना जुकाम, मिर्गी के दौरे की बीमारी, सर्वाइकल स्पॉन्डलाइटिस, नाक में पॉलिप होना, आदि रोगों में लाभकारी होता है।
नस्यकर्म: अपच, खांसी, नशे की हालत में, बच्चों को, गर्भिणी को तथा जिन्हें नाक के अंदर चोट लगी हो। नहीं करना चाहिए। नस्य कई प्रकार के होते हैं। इसमें प्रयुक्त औषधियां एवं पूर्ण रूप में औषधीय तेल, घृत आदि का उपयोग रोग तथा रोगी की प्रकृति के अनुसार किया जाता है।
रक्तमोक्षणः दूषित रक्त को शरीर से निकालने की विधि को रक्तमोक्षण कहा गया है। शस्त्र अथवा जलौका से दूषित रक्त को रोग के अनुसार शरीर के विशिष्ट भाग का चयन करके निकाला जाता है। त्वचा तथा रक्तवाहिनी के रोगों में रक्तमोक्षण से लाभ होता है। पंचकर्म करने से पहले स्नेहन तथा स्वेदन किए जाते हैं। स्नेहन तथा स्वेदन पंचकर्म से पहले करना आवश्यक ही नहीं बल्कि बहुतायत में तो इन्हीं दो पूर्वकर्मों को करके हम दोषों का सात्क्वय शरीर में ला सकते हैं तथा शरीर को स्वस्थ बना सकते हैं। ये दोनों पूर्वकर्म पंचकर्म का अभिन्न अंग हैं तथा शरीर में बाह्य रूप में आभ्यंतर रूप में दिए जाते हैं।
अभ्यंगः शास्त्रोक्त विशिष्ट पद्धति से शरीर पर घी अथवा औषधियुक्त तेल की मालिश करने को अभ्यंग कहा जाता है। यह त्वचा की रुक्षता, कमजोर व्यक्ति, अत्यंत शारीरिक श्रम किया हुआ अथवा मानसिक तनाव से युक्त, अनिद्रा रोग, वात रोग जैसे संधिवात, पक्षाघात, कंपवात, अवबाहुक (सरवाइकल स्पॉन्डिलाइटिस या लंबर स्पॉन्डिलाइटिस) में लाभकारी है। इसके अतिरिक्त स्वेद कर्म से पहले तथा पंचकर्म से पहले भी पूर्वकर्म के रूप में भी अभ्यंग किया जाता है।
ज्वर, अपच, गर्भिणी तथा विकृत कफ दोष जैसे कास, श्वास आदि में अभ्यंग नहीं करना चाहिए। रोग के अनुसार महानारायण तैल, क्षीरबला तैल, धनवंतरम तैल, महामाषतैल अथवा गौघृत आदि से अभ्यंग प्रशिक्षित परिचारक द्वारा करना चाहिए।
शिरोधाराः सिर-माथे पर दूध, औषधियुक्त तेल आदि तरल पदार्थ डालना शिरोधारा कहलाता है। इससे सिर में दर्द, मस्तिष्क रोग, शिरोरोग, नाड़ी दौर्बल्य, अनिद्रा, मानसिक तनाव, उच्च रक्तचाप, पक्षाघात, अर्दित (फेशियल पैरालिसिस) अपस्मार (मिर्गी) तथा अकाल बालों का पकना या सफेद होना इत्यादि रोगों में लाभ होता है। शिरोधारा कोमा, ज्वर, निम्न रक्तचाप तथा सर्दी-खांसी में नहीं करना चाहिए।
नेत्र तर्पणः आंखों पर औषधियुक्त घृत अथवा तेल डालने को नेत्रतर्पण कहा जाता है। यह क्रिया आंखों से धुंधला दिखना, आंखों का दुखना, रूक्षता, रतौंधी तथा वात व पित्ज अक्षि रोगों में अत्यंत लाभकारी है। रोगानुसार इस नेत्र तर्पण क्रिया में त्रिफलाधृत आदि का प्रयोग किया जाता है। यह क्रिया दृष्टिवर्धन का कार्य भी करती है।
कटिबस्तिः कटिबस्ति क्रिया में रोगी की कमर के निचले हिस्से (कटिप्रदेश) में उड़द की दाल के आटे का एक गोल यंत्र बनाकर रखा जाता है तथा उसमें औषधि युक्त सुखोष्णा तैल डालकर रखा जाता है। कटिबस्ति क्रिया स्नेहन तथा स्वेदन की मिश्रित क्रिया है। इससे कमर में दर्द, कटिशूल (लंबर स्पॉन्डिलाइटिस), स्लिप डिस्क, गृध्रसी (सियाटिका) आदि रोगों में लाभ होता है। इस क्रिया को कमर की टी।बी। अथवा कैंसर में नहीं करना चाहिए।
उपरोक्त सभी पंचकर्म की क्रियाएं रोगी के शरीर से प्रकुपित दोषों को निकालने का कार्य करती हैं। सामान्यतः आयुर्वेद में यह कहा गया है कि शोधन के बाद जब औषधियों का सेवन किया जाता है तो शरीर में रोगों का शमन शीघ्र होता है तथा रसायन औषधियों के सेवन से शरीर बलशाली हो जाता है तथा शरीर की रोगरोधी क्षमता (इम्युनिटी) बढ़ती है।